
दिवाली पर पटाखा जलाने की परम्परा बाजार की देन है |
इतिहास के पन्नों को खंगालने पर जवाब मिलता है कि दिवाली पर पटाखा जलाने का चलन बाजार की देन है। इसका भारतीय संस्कृति से कोई संबंध नहीं है। रामायण काल में भी राम के लौटने पर दीये जलाने का जिक्र तो होता है, लेकिन आतिशबाजी का कहीं कोई वर्णन नहीं मिलता है। इतिहास में पटाखे से संबंधित तीन प्रमुख जानकारियां मिलती हैं। पहला चीन में 11वीं शताब्दी में पटाखे का अविष्कार हुआ, दूसरा मुगलकाल में देश में पटाखे आए और तीसरा 1940 में भारत में पहली पटाखा फैक्टरी खुली। इसके बाद देश में धीरे-धीरे पटाखे का चलन बढ़ा। आइए पटाखे के इतिहास से रूबरू होते हैं।

चीन में पटाखों का अविष्कार
पटाखों का पहला प्रमाण चीन में मिलता है, जब वहां कुछ रसायनों को मिलाकर फायर पिल बनाई गई। यूरोप में पहले इटली, फिर जर्मनी और इंग्लैंड में पटाखे बने।
मुगलकाल में आए भारत में पटाखे
मुगलकाल में सबसे पहले भारत में पटाखे के प्रमाण मिलते हैं। 1667 में औरंगजेब ने दिवाली पर आतिशबाजी और दीये को प्रतिबंधित कर दिया था। इसके बाद ब्रिटिश शासन में भी पटाखों पर रोक लगाई गई थी।
शिवकाशी में खुली देश की पहली पटाखा फैक्टरी
1923 में कोलकाता की माचिस फैक्टरी में तमिलनाडु के दो भाई अय्या नाडार और शानमुगा नाडार नौकरी करते थे। इन्होंने बाद में अपने गांव लौटकर माचिस की फैक्टरी लगाई। 1940 में विस्फोटक एक्ट में बदलाव के बाद कुछ पटाखों का निर्माण कानूनी हुआ। इसके बाद नाडार भाइयों ने शिवकाशी में देश की पहली पटाखा फैक्टरी लगाई।
बड़ी शर्म की बात है कि भारत जैसे देश में नेताओ और व्यपारियो ने मिल कर अपने फायदे के लिए आतशबाजी को परम्परा या हिन्दुओ की भावनाओ से जोड़ दिया है | उस पर देश का कानून न्याय ऐसे टाइम पे करता है की कितनो के साथ अन्याय हो जाता है |
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